जगमोहन सिंह हां यही तो नाम
रखा था पिता जी ने उसका , वो महज कुछ महीनों
का ही था जब गुुरुमाता हमारे घर आई थी और कहने
लगी जगमाोहन नहीं जगजीत नाम रखो देखना ये
लड़का जग को जीतेगा। और हुआ भी वही अपनी गायकी से उसने दुनिया का दिल जीता। मैं आज भी जगजीत को याद करता हूं तो वही मासूम सा मेरा
छोटाा भाई मुझे नजर आता है। जो बचपन में बहुत शैतान नहीं था। अपनी दुनिया मेें मस्त मलंग रहने वाला पढ़ाकू। हां लेकिन संगीत
में उसकी बचपन से ही रुचि थी। अतीत के पन्नों
को पलटता हूं तो याद आता है शहर बीकानेर….गुरुसााहब को वो गुरुद्वारा और वो सिल्वर का मैडल जो एक भजन प्रतियोगिताा में हम
तीनों बहन भाईयों को मिला था। उस वक्त तो वो बहत छोटा था सिर्फ छ साल का। कितना खुश
था उस मैडल को पाकर वो। इतना ही सरल वो बड़े
होने के बााद भी रहा। छोटे छोटे पलों को जीने वाला छोटी छोटी खुशियों में खुश होने वाला। सहज, सरल, निर्मल और हां नदी
की तरह शांत और समुंदर की तरहा गहरा।
उस भजन प्रतियोगिता से एक बात तो अच्छी हुई की जगजीत
की संगीत की तालीम शुरु हो गई। पिताजी सरकारी नौकरी मेे थेे हम लोग 1958 तक बीकानेर
में वहीं रहे। यहां जगजीत के पहले गुरु पंडित छगनलाल शर्मा थे। वहीं गंगानगर में उसके
गुरु जमाल खां साहब रहे। बहुत मुशिकल सेे राजी हुए थे संगीत सिखाने के लिए।
शहर भी अपने में कितनी यादें
छिपाए रखते हैं। बीकानेर और गंगानगर ये ऐसे ही तो दो शहर हैं जहां बचपन बीता और जवानी
भी मुस्कुराती हुई इन दो शहरों में आई। हम 11 बहन भाई थे,जैसा कि पहले के परिवार में कल्पना
की जा सकती है घर का माहौल क्या होगा। पिता
हम पर बहत गहरी नजर रखने वाले एक अनुशासन प्रिय इंसान थे। वो कहते थे कि दोस्तों के साथ घूमों लेकिन सुूरज
ढलने से पहले घर लौट आओ। लेकिन कभी कभी हम भाई गुस्ताखी कर जाते थे। और पिताजी घर के
बाहर डंडा लिए खड़े रहते थे। बहुत बार एक दूसरे
को बचाया हम लोगों ने।
ना जाने कितनी बाते हैं जिंदगी
की किताब में। जब वो कॉलेज की पढ़ाई करने पंजाब गया वहां काफी संगीत प्रस्तुतियां देने
लगा था। वहां से उसका एक खत आया था जिससे घर में एक कोहराम मचा था। खत में लिखा था
कि उसको अपने केश कटवाने पड़े। इसके पीछे उसका तर्क थाा कि कोई भी नहीं एक पगधारी को
गजल गायक के तौर पर कूूबूल नहीं कर पा रहा था। ऑडियंस कई बार प्रोग्राम शुरु होने से
पहले ही तालियां बजा देती थी। पिताजी के लिए
इस बात को समझना बहुत आसान नहीं था। वो तीन दिन तक घर से बाहर ही नहीं निकले कि लोेग
क्या कहेंगे उनके बेटेे ने अपने केश कटवा लिए।
कहते हैं इंसान कुछ भी भूल
सकता है लेकिन अपनी जड़ो को नहीं। वो पंजाब से मुंबई गया। बहुत नाम कमाया उसने लेकिनवो
प्रोगााम के सिलसिले में जब भ्ी जयपुर आताा था। मेेरे पास जरुर आता था। और खाने में
उसकी एक ही फरमाईश होती थी करेेले की सब्जी और मूंग की दाल। ये दोनों चीजें उसे बचपन
से ही बेहद पसंद थी।कितने किस्से हैं कितनी कहानियां हैं उससे जुड़ी। हां मैं कैसे भूल
सकता हूं कि 1993 में जब मेरी बेटी की शादी
हुई थी, शादी का आधा खर्च उसने कियाा था और 3 दिन तक वो मेरे साथ थाा। मैंने कहा भी
था उससे जगजीत तू पैसेे से इतना क्यों कर रहा
है मैं कर लूंगा। तब उसने कहा था वीरजी क्या आपकी बेटी मेरी बेटी नहीं है।
कमाल का बंदा था वो एक और
किस्सा बताता हूं मेरी बेटी कनाडा मेें दो ज़डवा बच्चे हुए। वो जयपुर आया हुआ था और
मैं उससे जिक्र्रकर रहा था। शायद उस वक्त वो मेरे मन की बात समझ गया था कि तभी अचानक
बोला वीरजी जाना है कनाडा? अभी इंतजेाम किए देता हूं। और फिर मैं और मेरी वाइफ तीन महीनें के लिए कनाडा
गए थे अपने नातियों से मिलने। करेंसी के चेंज
होने से लेकर वहां पहुंचने तक का सारा इंतजेाम उसने किया था। ये बात पैसों से
नहीं दिल से जुड़ी है। Follow my facebook Page
वो ऐसा ही तो ख्याल रखता
था इन छोटी छोटी बातों का। लेकिन अपने दिल के दर्द को सीने में दबाए रहता था। अपने
बेटे की मौत का गम उसे कम नहीं था। लेकिन कभी जिक्र नहीं करता था। ना जानेे क्योें
भगवान ने ऐसा किया? हां बस अपने गम को संगीत
में उतार लिया उसने। उसकी एक गजल है चिट््टी ना कोई संदेश जाने वो कौनसा देश जहां तुम
चले गए। वो भी ऐसे ही चला गया। जहां कोई चिट्टी नहीं जाती। कई बार मन करता है वो सामने आए और उससे पूछ लूं
अब जयपुर क्यों नहीं आता? तेरे वीरजी तो आज भी तेरा इंतेजार कर रहे हैं।
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